कुछ पल स्वजनों के साथ.3
17 जनवरी 2010 की सुबह, पौ फट रही थी । पूरब का आसमान लाल हो चुका
था । रोजाना की तरह ही
सागर की लहरें मेरे चरण पखार रही थीं । मलय समीर के मन्द – मन्द झोंकें मन को अच्छे लग रहे थे । तभी मैंने काफी नजदीक से एक जहाज को गुजरते हुए देखा, जो कुछ कुछ अपना सा,जाना पहचाना सा लग रहा था ।जहाज
पहले पश्चिम को फिर थोडा उत्तर दिशा को बढा और फिर ठहर गया । मुझे लगभग यकीन सा होने लगा था कि यह
अपना एम वी सागरदीप ही है । परन्तु शंका समाधान के लिए मैंने अपनी दृष्टि उसी ओर
जमाए रखी ।
वैसे भी
मेरी दिनचर्या अक्सर इसी तरह जहाजों को निहारते हुए ही बीतती है । कुछ मेरे रेकॅान के सन्देश को प्राप्त कर आगे
बढते हैं तो कुछ मेरी तेज रोशनी को देख कर आगे बढते हैं पर बहुत कम ही मेरे पास आ
कर ठहरते हैं ।
मैंने
देखा जहाज ने एक नौका को पास के समुद्र में उतारा, कुछ
लोग नौका पर उतरे और तट की ओर बढ चले । मैंने नौका को कुछ दूर पानी में चलते देखा,
फिर भौगोलिक परिस्थिति के कारण नौका दिखनी बंद हो गई ।फिर तकरीबन
आधे - पौन घंटे बाद 10 - 11 लोग मेरी ओर आते दिखाई दिए ।
मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया क्योंकि मैं समझ गया कि ये मेरे ही विभाग के
लोग हैं और मुझसे ही मिलने आ रहें हैं ।
अभी हाल में ही मुझसे कुछ
डेढ-दो सौ मीटर की दूरी पर किनारे पर ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न
स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गांधी जी की एक बडी सी कांस्य प्रतिमा लगी है जो ठीक
मेरे सामने ही है। इस प्रतिमा के लगाए जाने का काम काफी पहले से चल रहा था,
किन्तु 26 दिसम्बर 2004
की सुनामी के बाद यह काम काफी धीमा हो गया था । इसके कई कारण थे । एक तो पहले
बनवाई गई प्रतिमा लगने से पहले ही सुनामी लहरों की भेंट चढ गई । दुसरी इसके बाद नई
प्रतिमा जब तक आई यहॉं की भौगोलिक परिस्थितियॉं बदल चुकी थी । अब जब से यह प्रतिमा
लगी है मेरा एकांत और सूनापन लगभग खत्म होता सा प्रतीत होने लगा । मेरी अब इस
प्रतिमा से गहरी छनने लगी है और हम एक दूसरे का ख्याल रखने लगे है ।
भारत के दक्षिणतम छोर पर वार्तालाप करते दो मित्र
प्रशासन
द्वारा यहॉं पास में ही एक नया हेलीपैड भी
बनवा दिया गया है, क्योंकि पहले वाला हेलीपैड भी
सुनामी की भेंट चढ चुका था । जब से यह
हेलीपैड बना है अक्सर कोई न कोई विशिष्ट अतिथि आते रहते है। जिससे हमें भी दीन
दुनिया की खबर लग जाती है । पुलिस रेडियों की एक टीम, मेडिकल , फोरेस्ट के कुछ लोग तथा कुछ मजदूर, भी यहॉं डेरा डाले हुए है, परन्तु ये लोग तो आज यहां
कल कहीं और जाने वाले है । लेकिन यह प्रतिमा कही जाने वाली नहीं है । फर्क इतना ही है कि वह तट पर है और मैं उससे करीब
डेढ दो सौ मीटर दूर पानी में । उसे देखने
अक्सर कोई न कोई आता रहता है और साथ में मुझे भी देख कर खुद को भाग्यशाली महसूस
करता है । परन्तु मुझे देखने वाला बिरला ही कोई आता है ।लेकिन आज मेरी खुशी का कोई
ओर छोर नहीं हैं क्योंकि यह दस बारह लोगों का दल जो मेंरी ओर बढ रहा है मेरे अपने
लोग है जो केवल मुझे देखने आ रहें है । इंदिरा जी की प्रतिमा को देखना इनका मुख्य
विषय नहीं है , आज यहां भारत के दक्षिणतम बिन्दु पर इंदिरा
जी की प्रतिमा की नहीं मेरी बात होगी,
यह सोच कर मैं मन ही मन प्रफुल्लित हो रहा था । आज मुझे बड़ी
तसल्ली हो रही थी कि चलो देर से ही सही पर मेरे विभाग ने मेरी सुध ली है ।
मैं अपलक
इस दल को निहार रहा था जो बडी ही तेजी और आतुरता से मेरी ओर बढ रहा था । पास आने
पर उनकी बातचीत से पता चला की दल की अगुवाई स्वयं निदेशक महोदय कर रहें हैं और साथ
में सहायक कार्यकारी अभियंता तथा कुछ कर्मचारी भी हैं ।मैंने मन ही मन सब का
अभिवादन किया ।
निदेशक जी
का यह पहला दौरा था वे काफी रोमांचित लग रहे थे । वे बार बार मेंरे और तट के बीच
की उस तकरीबन 50 मीटर चौडी गहराई को देख रहे थे जिसमें यहां की टुटी हुई बिल्डिंगों का मलबा
पडा था । समुद्र की जोरदार थपेडें, और मलबा हर किसी को मेरी
ओर बढने से रोक रहें थे । निदेशक जी ने मुझ तक पहॅंचने की हर संभावनाओ पर काफी देर
तक चिंतन मनन किया । फिर सब लोग मेरे मित्र इंदिरा जी की प्रतिमा के पास जा कर बैठ
गए और मेरी ओर देखते हुए आपस में बातें करने लगे ।
उनके मन की तो वो जाने पर मैं प्रत्यक्ष देख रहा था कि
जितनी खुशी इस दल को यहां देख कर आज मुझे हो रही थी उससे कहीं ज्यादा खुशी यहां
पहुंचने की ,उनके चेहरे पर मुझे झलक रहीं थी । सब लोग
कभी मेंरे साथ तो कभी मेंरे मित्र के साथ स्थान बदल-बदल कर तस्वीरें खिंचवा रहें
थे । उनकी यह हरकतें देखकर मैं भी मन-ही-मन मुस्कुरा दिया ।
यहां पर
डेरा डालें हुए विभिन्न विभागों के लोगों से भी निदेशक महोदय मिले और उनका हाल-चाल
पूछा । फिर टूटें हुए स्टाफ र्क्वाटर में
जाकर सब के सब बैठ गए । यहां सबने
सुनामी में अपने बिछड़े हुए साथियों की याद में दो मिनट का मौन धारण कर अपनी
श्रद्वांजली अर्पित की ।
मैं सोच रहा था कि एक आज
की सुबह है जिसने मेरे मन को अहलादित कर दिया है । एक सुबह 26 दिसम्बर 2004 वाली भी थी जिसकी शुरूआत तो आज की सुबह जैसी ही हुई थी परन्तु उस दिन जो
तांडव मचा था उसे याद कर आज भी मन कांप उठता हैं । वहीं टूटें हुए स्टाफ र्क्वाटर
में ही थोड़ी देर आराम करने के बाद इस दल ने मुझसे विदा ली और अपने अगले गंतव्य की
ओर बढ़ चले ।
भारत
के इस दक्षिणतम बिन्दू पर खडा मैं इंदिरा पांइट दीप घर सागर की लहरों के थपेडे
खाता अश्रुपूरित नयनों से उन्हें अपने अगले गंतव्य की ओर बढ़ते हुए देखता रहा ।
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