Friday, 7 June 2013

इन्दिरा पॉइंट दीपघर की आत्मकथा

 इंदिरा प्वाइंट दीपघर की आत्मकथा

          सागर की उत्ताल तरंगो की अठखेलियाँ, रजत कणों की रेतीली तट रेखा को पार कर मुझे छूने का असफल प्रयास, आस-पास नारियल और केजूरीना के विशाल झूमते वृक्ष, और उनके पार उष्ण कटिबंधीय घने, जंगलों का विस्तार । इसी एकांत में 6 डिग्री 45.18" उत्तरी अक्षांश तथा 93 डिग्री 49.57" पूर्वी देशांतर रेखाओं के मध्य पिछले तीस बरसों से अकेला खड़ा मैं ! मैं यानि इंदिरा प्वाइंट  दीपघर, दूर समुद्र में आते-जाते जहाजों का, अपनी तेज रोशनी और अन्य आधुनिक इलेक्ट्रोनिक उपकरणो के माध्यम से मार्गदर्शन कर रहा हूं ।
इन्दिरा पॉइंट दीपघर (सुनामी से पहले का दुर्लभ चित्र)
           मेरे पास पहूंचने के लिए अंडमान निकोबार द्वीपों की राजधानी पोर्टब्लेयर से तीन दिन की मनोहारी समुद्री यात्रा पूरी करने के पश्चात 51 किलोमीटर की सुखद सड़क यात्रा करने का आनंद ही कुछ और है । अंतिम पाँच किलोमीटर की यात्रा और भी रोचक और रोमांचक प्रतीत होती है, एक तरफ लहराता समुद्र और दूसरी तरफ ऊंची खड़ी बलुआ पत्थरों की पहाड़ी और बीचों बीच संकरी-सी पगडंडी। कहीं-कहीं पर काले मुंह वाली वानर सेना का दर्शन तो बीच बीच में मेगपोड पक्षी, जंगली कबूतर और अन्य पक्षियों का कलरव यात्रा को सुखद और अविस्मरणीय बना देता है ।
इन्दिरा पॉइंट  जाते हुए सैलानी और बलुवा पत्थरों की पहाड़ी ((सुनामी से पहले का दुर्लभ चित्र)


            भारत की कई महान विभूतियां मेरे यहाँ आई । सन् 1984 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी यहां आई और पाया की भारत का दक्षिणतम बिन्दु कन्याकुमारी नहीं बल्कि पिगमेलियन प्वाइंट  है । उन्होंने अपने नारे को थोड़ा-सा बदला और कहा कश्मीर से पिग्मेलियन प्वाइंट  तक भारत एक है । उनके शहीद होने के बाद मेरा पुनः नामकरण किया गया और में इन्दिरा प्वाइंट  दीपघर हो गया । इसके बाद तो जैसे मेरा भाग्योदय हो गया । सैलानियों का आवागमन बढ़ने लगा । सैलानियों का आना, उनका भारत के दक्षिणतम बिन्दु के बारे में जिज्ञासावश पूछना, और फिर मेरी सेवा में लगे  कर्मी द्वारा जिज्ञासा का समाधान पाना, उनका भाव विभोर होना, तट की रेत को माथे पर लगाना, समुद्र के किनारे से या फिर मेरे ऊपर चढ़कर समुद्र का भव्य विस्तार देखना, अपलक अवाक, दृष्टि और कल्पना लोक में विचरण, देख-देखकर मेरा मन उल्लास और गौरव की विचित्र अनुभूति से भर जाता है, और मैं अपने आपको अकेला महसूस करने के बजाय भाग्यशाली समझने लगता हूं । इन सैलानियों के उद्गार सुन-सुनकर मैं धन्य हो जाता हूं ।

          कोई कहता -
        -भारत के अंतिम छोर पर पहुंचकर धन्य हो गया ।
        -दक्षिणतम छोर की रज को माथे से लगाकर भारत माँ के चरण छूने का एहसास हुआ ।
        -भारत का दक्षिणतम छोर, सीमाहीन विशाल समुद्र और बिखरी घोर शांति, यहां                             पहुंचकर मन को विचित्र-सी शांति प्राप्त हुई ।

          तो कोई कहती -
        -खुशी शब्दो में बयान नहीं कर सकती ।
          एक जनाब ने तो फरमाया –
                  ऐ लौह खंभ तू है  निडर,
                  इधर चिंघाडता समुद्र, उधर वन बियाबान ।
                  ऐसे मैं तू यहाँ, नाविकों को राह दिखाता ।
                  भारत के इस छोर पर ,यूं खड़ा निडर ।
                  ऐ महान ,तुझे प्रणाम ।
                  तेरी काया गढ़ने वाले, को प्रणाम ।

भारत के दक्षिणतम छोर पर खड़े सैलानी((सुनामी से पहले का दुर्लभ चित्र) 

          मेरी इस विशाल 35 मीटर ऊंची लौह  काया की प्राण प्रतिष्ठा 30 अप्रैल सन् 1972 में तत्कालीन भारत के उपराष्ट्रपति श्री गोपाल स्वरूप पाठक के कर कमलों द्वारा हुई । इस काया के निर्माण में कितने ही इंजीनियरों और मज़दूरों ने खून पसीना एक किया । उनकी मेहनत,लगन,तत्परता और  धैर्य  को बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं । मैं उनका सदा ऋणी रहूँगा ।
          आज यह महज कल्पना ही की जा सकती है कि,सम्पूर्ण निर्माण सामाग्री और भारी भरकम कास्ट आइरन कि प्लेटों को यहाँ तक पहूंचाने और तरतीब से लगाने में मनुष्य ने सिर्फ अपने दोनों हाथों और बुद्धि का ही प्रयोग किया था । उन दिनों  मुख्यभूमि  से दूरी ,बिजली पानी का अभाव तो था ही , इसके अलावा थी मलेरिया, ज्योंडिश और अन्य जानलेवा बीमारियों का साम्राज्य ।
          शुरूवाती दूर में मेरी ऊर्जा का स्रोत डिजॉल्वड एसीटीलीन गैस थी । जनवरी सन् 1996 में मेरी ऊर्जा का स्रोत बदलकर सौर ऊर्जा कर दिया गया । नवम्बर सन् 1999 में ऊर्जा का स्रोत फिर से   बदलकर डीजल जेनेरेटर उत्पादित 230 वॉल्ट विद्धुत शक्ति कर दिया गया । रोशनी के लिए फ्लैशर के बजाय 400 वाट मेटल हेलाइड लैम्प और रोटरी ओप्टिक का इस्तेमाल हुआ । इसके साथ साथ रेडियो बीकोन कि भी स्थापना कि गई ।  रेक़ॉन कि व्यवस्था फरवरी सन् 1985 से ही थी । इस तरह मेरी नेविगेशन क्षमता और महत्व दिनों दिन बढ़ता गया ।
          विभाग के इंजीनियर और टेकनिशीयन नित नई विधाएँ मुझ से जोड़ रहे हैं । निकट भविष्य में सार्व भौमिक भूअंतरीय  स्थितिकरण प्रणाली (डी जी पी एस) लगवाने  की  भी योजना है । आज मैं अत्याधुनिक नेविगेशन विधाओं से युक्त देश कि सेवा मे लगा,  भारत के दक्षिणतम बिन्दु का एक सजग प्रहरी हूँ।
            मेरी अभिलाषा है -
                   बरसों तक यूं ही सीना ताने खड़ा रहुं
                   खुद भी रौशन रहुं ,आपको भी रौशन करूं
                   नाविकों को राह दिखा, विभाग और देश का गौरव बनूं
                   प्रयास बस इतना रहे, सर कभी मेरा न झुके ,
                   नित नई विधाएं नैविगेशन की , आप मुझ में जोड़ते रहें
                   यूं ही हम कंधे से कंधा मिलाए, देश को गौरवान्वित करते रहें । 

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