कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि आंखो से दृश्य सब देखता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि कानों से कहानी सब सुनता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि नाक से खतरों को सूंघता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि जबान से भरोसे को आँकता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि त्वचा से जमाने का तापमान लेता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि सभी ज्ञान चक्षु खुले रखता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्या हो गया है जमाने को,
क्यों लगी है आग जमाने में ।
क्यों रोजना बम फूटते हैं,
क्यों इंसान के खून का प्यासा इंसान है ।
क्यों लोग अपनों की खातिर जहर बोते है ।
क्यों इंच-इंच जमीन के लिए झगड़े है ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्यों नहीं भुला देते हम आपसी दुश्मनी
दुश्मनों की ओर एक मुस्कान उछाल कर तो देखते ,
थमा कर प्यार का संदेश उनको भी अपना बनाते,
और लगाते जोर, जमाने की तपिश ठंडी करने में ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
मिल जाये अगर हम तो मुश्किल है किसी से हिल भी जाये,
हर पंगें की काट रखते है मगर हम पंगे लेने से कतराते है ।
पर जरा इन निर्लज्ज बेईमानों का फलसफा देखो,
कुछ हो न हो लेकिन पंगे जरुर लो ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्या हमारे आपके ख्याल एक से नहीं,
है, तो डर किस बात की प्यारे , क्योंकि-
चुरा ले आँख से काजल वह नजर रखते है हम ।
लगा दे आग पानी में वह हुनर रखते है हम ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
कि मैं क्यों सोचता हूं ।
क्योंकि सोचने पर कोई ताला नहीं है
कोई गडबड घोटाला या फिर जाला नहीं है।
क्योंकि सोचने पर ही सब होता है,
जो हम सोचते है वही होता है,
जो इंसान बोता है वही काटता हैं,
यह कहावत आपने भी सुनी होगी ।
यह सोच ही तो बीज है होने वाली तरक्की का,
ना सोचते हम तो इतनी कहानी न होती,
आज भी चॉंद पे बैठी दादी अम्मा सूत कातती होती,
ख्यालों में ही हम पुष्पक उडाते होते ,
चाँद से आगे इंसान के बढते कदम न होते ,
जमाने से दो-दो हाथ करने की ताकत न होती ,
खेतों में यौ लह-लहाती बलियाँ न होती ,
चँहु ओर तरक्की की यौ सौंधी-सौंधी बयार न होती ,
ईश्वर से प्रतिद्वंदीता करता इंसान न होता ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं .....
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि आंखो से दृश्य सब देखता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि कानों से कहानी सब सुनता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि नाक से खतरों को सूंघता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि जबान से भरोसे को आँकता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि त्वचा से जमाने का तापमान लेता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्योंकि सभी ज्ञान चक्षु खुले रखता हूं ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्या हो गया है जमाने को,
क्यों लगी है आग जमाने में ।
क्यों रोजना बम फूटते हैं,
क्यों इंसान के खून का प्यासा इंसान है ।
क्यों लोग अपनों की खातिर जहर बोते है ।
क्यों इंच-इंच जमीन के लिए झगड़े है ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्यों नहीं भुला देते हम आपसी दुश्मनी
दुश्मनों की ओर एक मुस्कान उछाल कर तो देखते ,
थमा कर प्यार का संदेश उनको भी अपना बनाते,
और लगाते जोर, जमाने की तपिश ठंडी करने में ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
मिल जाये अगर हम तो मुश्किल है किसी से हिल भी जाये,
हर पंगें की काट रखते है मगर हम पंगे लेने से कतराते है ।
पर जरा इन निर्लज्ज बेईमानों का फलसफा देखो,
कुछ हो न हो लेकिन पंगे जरुर लो ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
क्या हमारे आपके ख्याल एक से नहीं,
है, तो डर किस बात की प्यारे , क्योंकि-
चुरा ले आँख से काजल वह नजर रखते है हम ।
लगा दे आग पानी में वह हुनर रखते है हम ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं ।
कि मैं क्यों सोचता हूं ।
क्योंकि सोचने पर कोई ताला नहीं है
कोई गडबड घोटाला या फिर जाला नहीं है।
क्योंकि सोचने पर ही सब होता है,
जो हम सोचते है वही होता है,
जो इंसान बोता है वही काटता हैं,
यह कहावत आपने भी सुनी होगी ।
यह सोच ही तो बीज है होने वाली तरक्की का,
ना सोचते हम तो इतनी कहानी न होती,
आज भी चॉंद पे बैठी दादी अम्मा सूत कातती होती,
ख्यालों में ही हम पुष्पक उडाते होते ,
चाँद से आगे इंसान के बढते कदम न होते ,
जमाने से दो-दो हाथ करने की ताकत न होती ,
खेतों में यौ लह-लहाती बलियाँ न होती ,
चँहु ओर तरक्की की यौ सौंधी-सौंधी बयार न होती ,
ईश्वर से प्रतिद्वंदीता करता इंसान न होता ।
कभी-कभी मैं सोचता हूं .....
No comments:
Post a Comment