चिरस्मरणीय पल - मंचल दीपघर की संस्थापना
मार्च 2004 का तीसरा सप्ताह था । वातावरण में थोड़ी ठंडक थी और था साफ खुला नीला आकाश । मलय समीर के मंद मंद झोंके मन को भले लग रहे थे । ऐसे में शांत गहरे नीले सागर की चौड़ी छाती को चीरता हुआ मालवाहक पोत एम.वी.ताराकिरण अपनी अधिकतम गति से गंतव्य की ओर बढ़ रहा था । इस बार एम.वी.ताराकिरण का जो गंतव्य था, वहां वह पहली बार ही जा रहा था । गंतव्य था बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान व निकोबार टापुओं की श्रृंखला का एक नन्हा मोती मंचल द्वीप ।
एम.वी.ताराकिरण था तो मालवाहक पोत परन्तु इसमें सवार थे पोत के कप्तान के तीन खास मेहमान जो की दीपघर व दीपपोत निदेशालय में कार्यरत है । ये लोग एक विशेष मिशन के अंतर्गत इस सूनसान और सुन्दर द्वीप पर जा रहें थे । इन्हें वहां पर बने नवनिर्मित दीपघर पर प्रकाशीय उपकरण की निर्धारित समय सीमा में संस्थापना करनी थी ।
मालवाहक पोत होने के कारण पोत में केबिनों की संख्या और आकार भी सीमित थे । जहाज के कर्मचारियों के अतिरिक्त अन्य के लिये इसमें कोई स्थान नहीं था । अतः इन मेहमानों को (जिसमें एक सहायक अभियंता तथा दो तकनिशियन थे) जहाज के 3 बाइ 3 फुट के छोटे से डाइनिंग हाल में ही दो रात और दो दिन गुजारने पडे़ । पोत में जगह कम थी परन्तु कप्तान के मन में काफी जगह थी उसने उनके आतिथ्य में कोई कमी नहीं आने दी ।
मेहमानों को भी इसका कोई मलाल नहीं था । उन्हें तो बस चिन्ता थी, अपने लक्ष्य को समय सीमा में अंजाम देने की ।चिन्ता वाजिब भी थी, क्योंकि इस द्वीप तक पहुँचने का अन्य कोई साधन नहीं था । युं तो विभाग की सेवा में एम.वी.सागरदीप और एम.वी.प्रदीप नामक दो बडे़ जलयान समर्पित है । परन्तु ऐन वक्त पर कोई भी उपलब्ध नहीं था और न ही निकट भविष्य में उनके उपलब्ध होने की संभावना थी, जिससे काम समय सीमा में किया जा सके ।
द्वीपों के जहाजरानी सेवा विभाग से जब इस संबंध में मदद मांगी गई तो उसने भी टका सा जवाब दे दिया । इसके अतिरिक्त स्थानीय जहाज कंपनियों से भी संपर्क साधा गया परन्तु परिणाम वहीं ढाक के तीन पात ही रहा । अंत में जब एम.वी.ताराकिरण के मालिक को यह समस्या बताई गई तो उन्होंने हमारी समस्या को समझा और सहायतार्थ पोत एम.वी.ताराकिरण की सेवा देने को तैयार हो गए ।
आखिर दो दिन और दो रात की अविस्मरणीय यात्रा के बाद एम.वी.ताराकिरण हमें लेकर इस हरे भरे रमणीय मंचल द्वीप के ऐंकर प्वाइंट पर पहुँच ही गया । भारी भारी प्रकाशीय उपकरण जो की मुख्यतः कांच/शीशे के होते हैं को सावधानीपूर्वक जहाज की क्रेन की मदद से ऐंकर प्वाइंट पर छोटी छोटी नौकाओं पर उतारा गया । जिनकी व्यवस्था इस द्वीप पर कैम्प कर रहे विभाग के कनिष्ठ अभियंता ने पहले से ही कर रखी थी ।
यहां पर हमने एम.वी.ताराकिरण के कप्तान तथा उनके सहयोगियों का इस कठिन परिस्थिति में सहयोग देने के लिए धन्यवाद किया और उनसे विदा ली । जब हम मंचल द्वीप के कैम्प में पहुंचे तो शाम के करीब तीन बज रहे थे । चूंकि हमें मंचल द्वीप के निर्धारित कार्यक्रम के अतिरिक्त पिलोमिलो द्वीप तथा काबरा द्वीप के दीपघरों के रख-रखाव का कार्य भी देखना था अतः तीन लोगों की इस टीम को दो भागों में बांट दिया गया । साथी तकनी्शियन को पिलोमिलो दीपघर के परिचर, जो वहां कैम्प में पहले से ही उपलब्ध थे के साथ नाव द्वारा पिलोमिलो रवाना किया गया जो वहां से करीब डेढ़ घंटे की दूरी पर स्थित है । टीम के अन्य सदस्य मंचल द्वीप पर ही रूके रहे और उसी समय मजदूरों की मदद से तुरंत ही प्रका्यीय उपकरण इत्यादि नवनिर्मित दीपघर पर पहुंचा दिए गए ।
यह सब काम निपटाते हुए संध्या हो गई थी । अब विश्राम का समय था परन्तु द्वीप जो दिन के उजाले में सुन्दर और रमणीय लग रहा था रात के अंधेरे में कुछ अजीब सा और भयावह लगने लगा था । खैर नहा धेाकर भेाजन बनाया गया और आनन फानन में खा पीकर मच्छरों से बचने के लिये हम मच्छरदानी में हो लिए । अंधेरा होने के बाद जितनी देर हम बाहर रहते ये क्षुद्र प्राणी हमें विशेष किस्म के इंजेकशन लगाने को तत्पर रहते । परन्तु मच्छरदानी के अंदर होने से वे इंजेकशन तो नहीं लगा पाते किन्तु लोरियां सुनाने से बाज नहीं आते । थकावट के कारण इन नन्हें मगर खतरनाक प्राणियों की लोरियां सुनते सुनते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला ।
अगली सुबह सुनियोजित तरीके से नवनिर्मित दीपघर पर प्रकाशीय उपकरण, फ्लै्शर, सोलर पैनल आदि की संस्थापना कर ली गर्इ्र और शाम पांच बजे तक दीपघर को टैस्ट रन पर चालू कर दिया गया । इसी बीच पिलोमिलो द्वीप वाली टीम भी पिलोमिलो दीपघर का सुनियोजित ढंग से रखरखाव कर दिन के 10 बजे तक मंचल द्वीप आ गई थी और मंचल द्वीप के कार्य में अपना सहयोग देने लगी थी ।
मंचल द्वीप पर हमारा कार्य पूर्ण हो चुका था । इसकी सूचना पुलिस रेडियो मैसेज से पोर्ट ब्लेयर मुख्यालय को दे दी गई ।इस द्वीप पर आने जाने का सुरक्षित समय कुछ ही दिनों में समाप्त होने वाला था और यहां का मौसम कभी भी बिगड़ सकता था । अतः इस द्वीप से वापसी के लिए कैम्पबल बे से आने वाली नावों की हम बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे थे । पूर्व निर्धरित कार्यक्रम के अनुसार अगली शाम तक दो बड़ी नौकाएं आ गई ।
सुबह सबेरे हम दो तकनीशियन कुछ मजदूरों और बचे हुए सामान के साथ नाव द्वारा काबरा द्वीप होते हुए कैम्पबल बे के लिए चल पडे़ । सहायक अभियंता और कनिष्ठ अभियंता मंचल द्वीप का कैम्प समाप्त कर कुछ देर बाद वहां से हमारे पीछे पीछे निकलने वाले थें । हमारी नाव करीब दस बजे काबरा द्वीप के पास पहुंची । लेकिन नाव बडी तथा उस पर भार ज्यादा होने के कारण किनारे नहीं जा पा रही थी किनारे से थोड़ी दूर तक पानी में भी बड़ी-बड़ी चट्टानें थी।
अमूमन जब भी हम इस द्वीप पर हम आते तो एक बड़ी नाव के साथ एक छोटी होड़ी (नाव) भी लाते जो हमें पतवार के सहारे किनारे ले जाती । परंतु कैम्प से चलने की वजह से छोटी नाव की व्यवस्था हम नहीं कर पाये थे ।अतः हम द्वीप से थोड़ी दूरी पर नाव रोक कर समुद्र मे स्थिर हो गए और द्वीप पर कैसे जाए सोचने लगे क्योंकि हम दोनों में से किसी को भी तैरना नहीं आता था । हम सोच रहे थे - आज का मौसम तो अच्छा है अगर आज हम इस कार्य को छोड़कर चले जाएं तो फिर इसे पूरा करने के लिए हमें दुबारा चार दिन की फेरी जहाज की यात्रा कर, पिलोमिलो द्वीप आना होगा और वहां से पांच छः घंटे चिलचिलाती धूप में नाव द्वारा यहां आना होगा, जो एक कठिन तथा बोरियत भरा कार्य है । इस समय हमलोग इतने आदमी है बाद में अकेले ही आना पड़ सकता है, पता नहीं तब मौसम कैसा हो । इस असमंजस की स्थिति में एक विचार मेरे मजदूर साथी ने दिया जिसका नाम जगपाल था, और वह नाव का संचालक भी था । उसने कहा सर मैं किनारे जा कर एक लकड़ी का लट्ठा लाता हूं फिर आप उसके सहारे किनारे चले जाइए ।
मैंने उसे बताया यह विचार बेवकूफी भरा है चूंकि हम दोनों में से किसी को भी तैरना नहीं आता पर वह माना नहीं वह अच्छा तैराक था और किनारे जाकर एक 15-16 फुट का मोटा बांस उठा लाया और बोला ‘सर आप पानी में कूद कर इसका सहारा लेते हुए जाइए मैं पीछे पीछे सामान ले आउंगा ।’ मैंने फिर विचार किया, मन ही मन सारे ज्ञात देवी देवताओं को याद किया, और जय बजरंग बली कहते हुए पानी में कूद पड़ा । (मैं जानता था कि साथी मजदूरों में से अधिकतर तैरना जानते हैं और मुझे अनहोनी की स्थिति में बचा सकते हैं ।) पहले तो बांस के सहारे मैं डुब ही रहा था परंतु हिम्मत से काम लेते हुए किसी तरह एक हाथ से बांस को तथा दूसरें से जगपाल का सहारा लेते हुए पानी - पत्थर के बीच तैरता/चलता किनारे पहुंच गया । फिर हम दोनों काबरा की पहाड़ी पर चढ़ते हुए दीपघर पहुंचे । उसका रख-रखाव किया और वापस किनारे पहुंच गए ।
किनारे पहूंचकर कच्चे नारियल का पानी पिया और एक बार फिर जैसे किनारे आए वैसे ही नाव पर चढ़ने के लिए मन को तैयार किया । इस बार मेरी हिम्मत बढ़ चुकी थी परंतु इस बार नाव पर चढ़ना मेरी जिम्मेदारी नहीं लाचारी थी, अन्यथा राबिन्सन क्रुसो की तरह वहीं का वासी हो जाता ।
खैर जैसे तैसे सभी ज्ञात देवी देवताओं को याद करके फिर पानी में कूदा तथा, बांस और जगपाल के सहारे फिर नाव पर आ पहूंचा । यहां मैं यह बताना गलत नहीं समझता की जगपाल की इस मदद का मैंने सिर्फ शब्दों में धन्यवाद ज्ञापन कर अपना कर्तव्य समाप्त समझ लिया । ऐसा ही प्रायः हम सभी ऐसी परिस्थिति में करते है और भूल जाते है कि उनकी मदद के बिना बिना वह काम लगभग असंभव होता है ।
नाव से सफर करते हुए संध्या, लगभग तीन बजे हम कैम्पबल बे पहुच गए । तुरंत इंन्सपैक्शन क्वार्टर पहुँच कर सामान वगैरह ठिकाने लगाए फेरी जहाज एम.वी.निकोबार का, अपना और शेष टीम के सदस्यों के लिये टिकट खरीदा और फिर दूसरी नाव का इंतजार करने लगे । इंतजार करते-करते शाम के आठ बज गए, तब जाकर दूसरी नाव किनारे पहुंच तथा सहायक अभियंता और कनिष्ठ अभियंता उससे उतरे । हमने अपनी सारी कहानी उन्हें सुनाई और उन्होंने अपनी हमें । वे बोले ऐसे खतरा मोल लेकर काम नहीं करना चाहिए । फिर बोले परिस्थितियां ही सब कुछ आदमी से कराती हैं ।
फिर रात का भोजन वगैरह हुआ और इन्सपैक्शन क्वार्टस में रात बिताई गई । अगली सुबह एम.वी.निकोबार से हम लोग पोर्ट ब्लेयर मुख्यालय की ओर रवाना हुए । दो दिन की यात्रा के बाद हम पोर्ट ब्लेयर पहुंचे । कार्यालय पहुंचे तो निदेशक साहब मंद मंद मुस्कुरा रहे थे और समय पर काम समाप्त होने की वजह से बहुत खुश लग रहे थे, तो हमारा सीना भी खुशी से चौड़ा हो गया और हम अपने सभी कष्ट भूल गए ।
आठ नौ दिनों का दौरा कार्यक्रम सचमुच ही मनोरंजक तथा रोमांचकारी रहा । मैंने जब अपने इष्ट मित्रों को यह कथा सुनाई तो उन्होंने कहा - अमां सरकारी नौकर हो, उसी जैसे रहो हीरो बनने की कोशिश करोगे तो एक दिन गुलीवर की तरह अपने आप को किसी टापू में बौनों से घिरा हुआ पाओगे ।
मार्च 2004 का तीसरा सप्ताह था । वातावरण में थोड़ी ठंडक थी और था साफ खुला नीला आकाश । मलय समीर के मंद मंद झोंके मन को भले लग रहे थे । ऐसे में शांत गहरे नीले सागर की चौड़ी छाती को चीरता हुआ मालवाहक पोत एम.वी.ताराकिरण अपनी अधिकतम गति से गंतव्य की ओर बढ़ रहा था । इस बार एम.वी.ताराकिरण का जो गंतव्य था, वहां वह पहली बार ही जा रहा था । गंतव्य था बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान व निकोबार टापुओं की श्रृंखला का एक नन्हा मोती मंचल द्वीप ।
एम.वी.ताराकिरण था तो मालवाहक पोत परन्तु इसमें सवार थे पोत के कप्तान के तीन खास मेहमान जो की दीपघर व दीपपोत निदेशालय में कार्यरत है । ये लोग एक विशेष मिशन के अंतर्गत इस सूनसान और सुन्दर द्वीप पर जा रहें थे । इन्हें वहां पर बने नवनिर्मित दीपघर पर प्रकाशीय उपकरण की निर्धारित समय सीमा में संस्थापना करनी थी ।
मालवाहक पोत होने के कारण पोत में केबिनों की संख्या और आकार भी सीमित थे । जहाज के कर्मचारियों के अतिरिक्त अन्य के लिये इसमें कोई स्थान नहीं था । अतः इन मेहमानों को (जिसमें एक सहायक अभियंता तथा दो तकनिशियन थे) जहाज के 3 बाइ 3 फुट के छोटे से डाइनिंग हाल में ही दो रात और दो दिन गुजारने पडे़ । पोत में जगह कम थी परन्तु कप्तान के मन में काफी जगह थी उसने उनके आतिथ्य में कोई कमी नहीं आने दी ।
मेहमानों को भी इसका कोई मलाल नहीं था । उन्हें तो बस चिन्ता थी, अपने लक्ष्य को समय सीमा में अंजाम देने की ।चिन्ता वाजिब भी थी, क्योंकि इस द्वीप तक पहुँचने का अन्य कोई साधन नहीं था । युं तो विभाग की सेवा में एम.वी.सागरदीप और एम.वी.प्रदीप नामक दो बडे़ जलयान समर्पित है । परन्तु ऐन वक्त पर कोई भी उपलब्ध नहीं था और न ही निकट भविष्य में उनके उपलब्ध होने की संभावना थी, जिससे काम समय सीमा में किया जा सके ।
द्वीपों के जहाजरानी सेवा विभाग से जब इस संबंध में मदद मांगी गई तो उसने भी टका सा जवाब दे दिया । इसके अतिरिक्त स्थानीय जहाज कंपनियों से भी संपर्क साधा गया परन्तु परिणाम वहीं ढाक के तीन पात ही रहा । अंत में जब एम.वी.ताराकिरण के मालिक को यह समस्या बताई गई तो उन्होंने हमारी समस्या को समझा और सहायतार्थ पोत एम.वी.ताराकिरण की सेवा देने को तैयार हो गए ।
आखिर दो दिन और दो रात की अविस्मरणीय यात्रा के बाद एम.वी.ताराकिरण हमें लेकर इस हरे भरे रमणीय मंचल द्वीप के ऐंकर प्वाइंट पर पहुँच ही गया । भारी भारी प्रकाशीय उपकरण जो की मुख्यतः कांच/शीशे के होते हैं को सावधानीपूर्वक जहाज की क्रेन की मदद से ऐंकर प्वाइंट पर छोटी छोटी नौकाओं पर उतारा गया । जिनकी व्यवस्था इस द्वीप पर कैम्प कर रहे विभाग के कनिष्ठ अभियंता ने पहले से ही कर रखी थी ।
यहां पर हमने एम.वी.ताराकिरण के कप्तान तथा उनके सहयोगियों का इस कठिन परिस्थिति में सहयोग देने के लिए धन्यवाद किया और उनसे विदा ली । जब हम मंचल द्वीप के कैम्प में पहुंचे तो शाम के करीब तीन बज रहे थे । चूंकि हमें मंचल द्वीप के निर्धारित कार्यक्रम के अतिरिक्त पिलोमिलो द्वीप तथा काबरा द्वीप के दीपघरों के रख-रखाव का कार्य भी देखना था अतः तीन लोगों की इस टीम को दो भागों में बांट दिया गया । साथी तकनी्शियन को पिलोमिलो दीपघर के परिचर, जो वहां कैम्प में पहले से ही उपलब्ध थे के साथ नाव द्वारा पिलोमिलो रवाना किया गया जो वहां से करीब डेढ़ घंटे की दूरी पर स्थित है । टीम के अन्य सदस्य मंचल द्वीप पर ही रूके रहे और उसी समय मजदूरों की मदद से तुरंत ही प्रका्यीय उपकरण इत्यादि नवनिर्मित दीपघर पर पहुंचा दिए गए ।
यह सब काम निपटाते हुए संध्या हो गई थी । अब विश्राम का समय था परन्तु द्वीप जो दिन के उजाले में सुन्दर और रमणीय लग रहा था रात के अंधेरे में कुछ अजीब सा और भयावह लगने लगा था । खैर नहा धेाकर भेाजन बनाया गया और आनन फानन में खा पीकर मच्छरों से बचने के लिये हम मच्छरदानी में हो लिए । अंधेरा होने के बाद जितनी देर हम बाहर रहते ये क्षुद्र प्राणी हमें विशेष किस्म के इंजेकशन लगाने को तत्पर रहते । परन्तु मच्छरदानी के अंदर होने से वे इंजेकशन तो नहीं लगा पाते किन्तु लोरियां सुनाने से बाज नहीं आते । थकावट के कारण इन नन्हें मगर खतरनाक प्राणियों की लोरियां सुनते सुनते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला ।
अगली सुबह सुनियोजित तरीके से नवनिर्मित दीपघर पर प्रकाशीय उपकरण, फ्लै्शर, सोलर पैनल आदि की संस्थापना कर ली गर्इ्र और शाम पांच बजे तक दीपघर को टैस्ट रन पर चालू कर दिया गया । इसी बीच पिलोमिलो द्वीप वाली टीम भी पिलोमिलो दीपघर का सुनियोजित ढंग से रखरखाव कर दिन के 10 बजे तक मंचल द्वीप आ गई थी और मंचल द्वीप के कार्य में अपना सहयोग देने लगी थी ।
मंचल द्वीप पर हमारा कार्य पूर्ण हो चुका था । इसकी सूचना पुलिस रेडियो मैसेज से पोर्ट ब्लेयर मुख्यालय को दे दी गई ।इस द्वीप पर आने जाने का सुरक्षित समय कुछ ही दिनों में समाप्त होने वाला था और यहां का मौसम कभी भी बिगड़ सकता था । अतः इस द्वीप से वापसी के लिए कैम्पबल बे से आने वाली नावों की हम बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे थे । पूर्व निर्धरित कार्यक्रम के अनुसार अगली शाम तक दो बड़ी नौकाएं आ गई ।
सुबह सबेरे हम दो तकनीशियन कुछ मजदूरों और बचे हुए सामान के साथ नाव द्वारा काबरा द्वीप होते हुए कैम्पबल बे के लिए चल पडे़ । सहायक अभियंता और कनिष्ठ अभियंता मंचल द्वीप का कैम्प समाप्त कर कुछ देर बाद वहां से हमारे पीछे पीछे निकलने वाले थें । हमारी नाव करीब दस बजे काबरा द्वीप के पास पहुंची । लेकिन नाव बडी तथा उस पर भार ज्यादा होने के कारण किनारे नहीं जा पा रही थी किनारे से थोड़ी दूर तक पानी में भी बड़ी-बड़ी चट्टानें थी।
अमूमन जब भी हम इस द्वीप पर हम आते तो एक बड़ी नाव के साथ एक छोटी होड़ी (नाव) भी लाते जो हमें पतवार के सहारे किनारे ले जाती । परंतु कैम्प से चलने की वजह से छोटी नाव की व्यवस्था हम नहीं कर पाये थे ।अतः हम द्वीप से थोड़ी दूरी पर नाव रोक कर समुद्र मे स्थिर हो गए और द्वीप पर कैसे जाए सोचने लगे क्योंकि हम दोनों में से किसी को भी तैरना नहीं आता था । हम सोच रहे थे - आज का मौसम तो अच्छा है अगर आज हम इस कार्य को छोड़कर चले जाएं तो फिर इसे पूरा करने के लिए हमें दुबारा चार दिन की फेरी जहाज की यात्रा कर, पिलोमिलो द्वीप आना होगा और वहां से पांच छः घंटे चिलचिलाती धूप में नाव द्वारा यहां आना होगा, जो एक कठिन तथा बोरियत भरा कार्य है । इस समय हमलोग इतने आदमी है बाद में अकेले ही आना पड़ सकता है, पता नहीं तब मौसम कैसा हो । इस असमंजस की स्थिति में एक विचार मेरे मजदूर साथी ने दिया जिसका नाम जगपाल था, और वह नाव का संचालक भी था । उसने कहा सर मैं किनारे जा कर एक लकड़ी का लट्ठा लाता हूं फिर आप उसके सहारे किनारे चले जाइए ।
मैंने उसे बताया यह विचार बेवकूफी भरा है चूंकि हम दोनों में से किसी को भी तैरना नहीं आता पर वह माना नहीं वह अच्छा तैराक था और किनारे जाकर एक 15-16 फुट का मोटा बांस उठा लाया और बोला ‘सर आप पानी में कूद कर इसका सहारा लेते हुए जाइए मैं पीछे पीछे सामान ले आउंगा ।’ मैंने फिर विचार किया, मन ही मन सारे ज्ञात देवी देवताओं को याद किया, और जय बजरंग बली कहते हुए पानी में कूद पड़ा । (मैं जानता था कि साथी मजदूरों में से अधिकतर तैरना जानते हैं और मुझे अनहोनी की स्थिति में बचा सकते हैं ।) पहले तो बांस के सहारे मैं डुब ही रहा था परंतु हिम्मत से काम लेते हुए किसी तरह एक हाथ से बांस को तथा दूसरें से जगपाल का सहारा लेते हुए पानी - पत्थर के बीच तैरता/चलता किनारे पहुंच गया । फिर हम दोनों काबरा की पहाड़ी पर चढ़ते हुए दीपघर पहुंचे । उसका रख-रखाव किया और वापस किनारे पहुंच गए ।
किनारे पहूंचकर कच्चे नारियल का पानी पिया और एक बार फिर जैसे किनारे आए वैसे ही नाव पर चढ़ने के लिए मन को तैयार किया । इस बार मेरी हिम्मत बढ़ चुकी थी परंतु इस बार नाव पर चढ़ना मेरी जिम्मेदारी नहीं लाचारी थी, अन्यथा राबिन्सन क्रुसो की तरह वहीं का वासी हो जाता ।
खैर जैसे तैसे सभी ज्ञात देवी देवताओं को याद करके फिर पानी में कूदा तथा, बांस और जगपाल के सहारे फिर नाव पर आ पहूंचा । यहां मैं यह बताना गलत नहीं समझता की जगपाल की इस मदद का मैंने सिर्फ शब्दों में धन्यवाद ज्ञापन कर अपना कर्तव्य समाप्त समझ लिया । ऐसा ही प्रायः हम सभी ऐसी परिस्थिति में करते है और भूल जाते है कि उनकी मदद के बिना बिना वह काम लगभग असंभव होता है ।
नाव से सफर करते हुए संध्या, लगभग तीन बजे हम कैम्पबल बे पहुच गए । तुरंत इंन्सपैक्शन क्वार्टर पहुँच कर सामान वगैरह ठिकाने लगाए फेरी जहाज एम.वी.निकोबार का, अपना और शेष टीम के सदस्यों के लिये टिकट खरीदा और फिर दूसरी नाव का इंतजार करने लगे । इंतजार करते-करते शाम के आठ बज गए, तब जाकर दूसरी नाव किनारे पहुंच तथा सहायक अभियंता और कनिष्ठ अभियंता उससे उतरे । हमने अपनी सारी कहानी उन्हें सुनाई और उन्होंने अपनी हमें । वे बोले ऐसे खतरा मोल लेकर काम नहीं करना चाहिए । फिर बोले परिस्थितियां ही सब कुछ आदमी से कराती हैं ।
फिर रात का भोजन वगैरह हुआ और इन्सपैक्शन क्वार्टस में रात बिताई गई । अगली सुबह एम.वी.निकोबार से हम लोग पोर्ट ब्लेयर मुख्यालय की ओर रवाना हुए । दो दिन की यात्रा के बाद हम पोर्ट ब्लेयर पहुंचे । कार्यालय पहुंचे तो निदेशक साहब मंद मंद मुस्कुरा रहे थे और समय पर काम समाप्त होने की वजह से बहुत खुश लग रहे थे, तो हमारा सीना भी खुशी से चौड़ा हो गया और हम अपने सभी कष्ट भूल गए ।
आठ नौ दिनों का दौरा कार्यक्रम सचमुच ही मनोरंजक तथा रोमांचकारी रहा । मैंने जब अपने इष्ट मित्रों को यह कथा सुनाई तो उन्होंने कहा - अमां सरकारी नौकर हो, उसी जैसे रहो हीरो बनने की कोशिश करोगे तो एक दिन गुलीवर की तरह अपने आप को किसी टापू में बौनों से घिरा हुआ पाओगे ।
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