Wednesday, 26 June 2013

Interview Island



Interview Island  



     Interview Island, a windswept nature sanctuary off the remote northwest coast of middle Andaman Mayabunder known for the presence of feral elephants, with an area of about 133 sq.Km  can be described by the following geo- coordinates.
 N 12⁰14'15'' to 12⁰59'02'' & E 92⁰39'04'' to 92⁰43'23''

The island was declared  a wildlife sanctuary in 1985  for the protection  and propagation of elephants, and opened  to tourists in 1997. It is a large, mainly flat except for steep rugged hills towards the south west and completely uninhabited islands  with  a handful of  forest wardens,  and police men’s, posted here to ward off it from poachers.  The island is surrounded by fringing coral reefs. The whole islands is covered by dense evergreen forest & mangrove vegetation. Foreigners are not permitted to spend the night in the island, and to visit one must first obtain permission from the Chief Wildlife Warden in Port Blair. A person visiting Andamans to watch wildlife, should make a visit here once.
 The only way to reach Interview island is to charter a private fishing dinghy(country boat) from Mayabunder jetty.  Arrange one, the day before and leave at first light. It is an exciting journey which passes through the Austin creek, one of the longest creeks of these islands . It is about two hours journey, with lots of scenic beauty and mind blowing thrills. There is a forest camp, where you have to sign an entry ledger. Here one must  ask the forest wardens about the movements of Interview’s feral elephants,  deserted here by a Kolkata based logging company in the 1950s to avoid any incidence .
The major vegetation types in this sanctuary include Andaman tropical evergreen forest and varieties of mangroves. fauna found in the islands includes the feral elephant, spotted deer, barking deer, Andaman wild pig, civet cat, varieties of bats. Plenty  of birds can be seen in and around the island . This include Andaman wood pigeon, Andaman Drango, white-bellied sea eagle  ,Andaman Teal, Cotton Teal,  Lesser whistling Teal, Red cheeked parakeet,  Reef Heron, white collared Kingfisher, white bellied swiftlet, forest wagtail etc. Among all, the bird of particular interest is white-bellied swiftlet or the edible-nest swiftlet. This bird is known for making its nest purely from its saliva. These nests have very high commercial value because of its medicinal properties.
The reptile fauna includes variety of poisonous(Andaman Black Cobra) and non poisonous snakes, water monitor lizard, salt water crocodiles etc. Marine turtles also sometimes visit the island for nesting on the beaches. Some of the butterflies found here are Andaman Mormon, great Mormon, Andaman club tail, Great Jay, Tailed Jay, common rose, Purple sapphire  etc.
As per the  demand from the Maritime agencies for providing a Lighthouse on the southern tip of the island. The masonry structure for the lighthouse was constructed by 1993 and the  optical equipment with halogen lamp and solar charged batteries was installed over the structure in early 1994. It was commissioned into service on 31st March 1994. The lighthouse was completely destroyed later on due to the devastating Tsunami & earthquake of 26th December 2004. But due to its strategic  importance a new  lighthouse was constructed later on at the same place of framed steel structure with optical equipment working on solar power. This is the only lighthouse in the western coast of the islands.
       There is a beautiful sweet water stream in the western side of the island near the lighthouse, beneath the hillock. The police camp is also situated nearby the stream and they use this water for their daily needs. Beside this the feral elephants  and other small animals also visit this stream occasionally for their water needs. The source of the stream is a mysterious one as it starts from the bottom of  a cave beneath the hillock, it feels like the water is flushed out from the bottom of the cave and meets to sea which is hardly about 400 meters away. A small concrete check Dam is constructed about 15 meter away from the source near the cave to store the water . The fresh flowing water of the stream  is  available  throughout the year.  A person visiting to this island must try to visit this island to quench his thirst of romantic  natural beauty. 


Tuesday, 11 June 2013


              बम्पूका द्वीप की यादें

बंगाल की खाड़ी में छोटे-छोटे द्वीपों की शक्ल में कई सारे मोती बिखरे हुए हैं, इन्हीं मोतियों में से एक मोती है, बम्पूका द्वीप जिसकी यहाँ पर चर्चा की जा रही है । द्वीपों की राजधानी पोर्ट ब्लेयर से जब हम दक्षिणी द्वीपों की यात्रा पर निकलते हैं तो रास्ते में टेरेसा द्वीप पड़ता है । यहां से करीब 2.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है बम्पूका द्वीप । नक्शे  पर इसकी स्थिति 8°132’’ से 8°157’’ उत्तरी अक्षांश तथा 93°128’’ से 93°148’’ पूर्वी देशांतर के मध्य है ।
बम्पूका द्वीप पर कुछ आदिवासी रहते हैं जो शक्ल- सूरत से निकोबारी आदिवासियों से मिलते-जुलते हैं परंतु इनकी भाषा और रहन-सहन उनसे थोड़ा हटकर है । इन आदिवासियों की मदद के बगैर इस द्वीप पर पहुंचना काफी मुश्किल है । द्वीप प्रशासन की अनुमति के बगैर आम जनता अथवा पर्यटकों का इस द्वीप पर आना जाना पूर्णतः निषेध है ।
इस द्वीप पर दीपघर होने के कारण विभाग के लोग कभी भी इस द्वीप के निकट विभागीय जहाज एम.वी.प्रदीप अथवा एम.वी.सागरदीप से पहुंच सकते हैं । किन्तु द्वीप पर उतरने के लिए द्वीप के तटों की सही जानकारी न होने के कारण द्वीपवासियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है ।इन आदिवासियों का मुखिया ही इस द्वीप पर स्थित दीपघर का दीप परिचर है । इस कारण विभाग के लोगों को यहां आने - जाने में थोडी सुविधा रहती है । जब कभी भी इस द्वीप पर आना होता है तो पहले एक रेडियो संदेश  पुलिस रेडियो द्वारा भेजा जाता है जो टेरेसा द्वीप पर स्थित पुलिस रेडिया तक पहुंचता है । बम्पूका द्वीप से जब भी कोई टेरेसा द्वीप आता है तो उसके द्वारा  इसे अग्रेशित कर दिया जाता है । जिससे कि दीप परिचर या कोई अन्य द्वीप से निकल कर पास के एन्कर प्वाइंट पर आ जाता है और हम लोगों को किनारे पहुँचने  में कोई परेशानी नहीं होती ।
परन्तु 26 दिसम्बर 2004 की सुनामी के बाद यहां के समुद्री किनारों पर बहुत ज्यादा बदलाव हुआ । बहुत सारे नारियल के पेड़ बह गए और तट रेखा पर इतना ज्यादा बदलाव हुआ कि आदिवासियों की बिना मदद के द्वीप पर उतरना लगभग नामुमकिन सा हो गया । इतनी कठिनाइयों के बावजूद भी इस द्वीप का सफर बहुत ही रोमांचक, और मन को आहलादित कर देने वाला होता है ।

ऐंकर पॉइंट से बंबूका तट की ओर 
अगस्त, 2008 में दक्षिणी द्वीपों के दीपघरों का रख रखाव का कार्य करते हुए हम विभागीय जहाज एम.वी .सागरदीप द्वारा यहां आए । इस दल में दो अधिकारीयों तथा पांच कर्मचारीयों सहित कुल 7 लोग थे । द्वीप के एकदम पास जाकर जहाज का भोंपू बजवाया गया ताकि द्वीप वासियों को लगे की कोई जहाज आया है और वे उसे देखने के लिए किनारे की ओर दौडे, और इस क्रम में हमें लेने के लिए दीप परिचर को हमारी ओर भेजें । परंतु 15- 20 मिनट बीत जाने के बाद भी जब कोई  हलचल  नहीं दिखाई दी तो हम लोग इंजन चालित नौका लेकर किनारे की ओर चल पडे । कुछ देर बाद हमें किनारे की ओर से एक छोटी सी होडी( पेड़ के तने को खोखला कर बनाई गई नौका जिसमें एक ओर संतुलन भुजा लगी होती है ) अपनी और आती दिखाई दी ।
इस होड़ी में श्री इन्कानाइलू, दीपघर परिचर भी था । उसने पास आकर बताया कि, हमारी नौका किनारे तक नहीं जा सकती है, अतः इसे यही ऐन्कर कर दीजिए और मेरी होडी से किनारे चलिए । हमने उसकी बात मान ली और दो - दो लोग एक - एक बार में उसकी होड़ी से किनारे की ओर चल पडे । होड़ी काफी छोटी थी अतः उसमें दो होडी चलाने वाले के अतिरिक्त सिर्फ दो ही लोग बैठ सकते थें । होडी चप्पुओं के द्वारा चलायी जाती है ।
                 
                  एन्कर प्वाइंट से बम्पूका तट की ओर
                      
हम लोगों ने परिचर से उसका कुशल क्षेम जाना । बातचीत से पता चला कि सुनामी की वजह से आदिवासियों को अपने पहले वाले निवास स्थान से काफी पीछे हटना पड़ा । जीविका के मुख्य श्रोत नारियल के पेड़ तथा पशुधन का विनाश परिचर और उसके परिवार वालों के लिए कष्टदायी साबित हुआ । अब   कुछ ही नारियल के पेड़ तथा पशु उसके पास रह गये थे । यह भी पता चला कि द्वीप का लैंडिंग प्वाइंट भी कुछ पीछे हट गया है जिससे  दीपघर की दूरी भी लैंडिंग प्वाइंट से 2.5 के बजाय 5 किलोमीटर हो गई है वह भी समुद्र के  किनारे किनारे चलते हुए । जंगली रास्ते से होता हुआ छोटा रास्ता अब खत्म हो चुका था । इसके बाद सब लोग दीपघर पहुँचने के लिए धीरे-धीरे समुद्र के किनारे किनारे चलने लगे । तकरीबन 45 मिनट चलने के बाद  हमलोग लताओं और झाड़ियों की बनी एक सुरंगनुमा रास्ते के मुहाने पर थे ,जहां एक बरसाती नाला भी बह रहा था । यहां पहुंचकर हमलोगों ने ठंडे पानी से मुंह हाथ धोया, थोडा सुस्ताया , और फिर आगे सुरंगनुमा रास्ते में जा घुसे । कुछ दूर जाने पर हम इन लताओं की सुरंग के बाहर आ गए और एक पगडंडी मिली जिसके दोनों ओर उंची-उंची घासें थी।  इन उंची-उंची घासों  से यहां के  निवासी अपनी घरों की छत का निर्माण करते हैं । ऐसा लग रहा था जैसे हम किसी फिल्मी शूटिंग लोकेशन पर आ गए हो । कभी घासें कम हो जाती तो कभी हम उसकी उंचाई में खो जाते । उनकी हरियाली मन को भली लग रही थी । दीपघर से करीब तीन सौ मीटर पहले तो घासों की उंचाई हमारी उंचाई से भी ज्यादा थी ।बीच में एक जगह हमें जंगली सांडों का झुंड भी मिला । उनके लम्बे लम्बे सींग देखकर पहले तो हम घबरा गए, परन्तु दीप परिचर के साथ में होने से कोई परेशानी नहीं हुईं । वे मरकहे नहीं थे ।

बम्पूका द्वीप की प्राकृतिक सुन्दरता

कुछ देर बाद इन मस्त सुहानी राहों से गुजरते हुए हम अपनी मंजिल यानी  बम्पूका दीपघर पर पहुच गए ।यहां का रख रखाव तथा अन्य निर्धारित  कार्य पूरा किया गया । फिर कुछ देर तक आस-पास के मनोहारी दृश्यों  और हरियाली का लुत्फ उठाने के बाद हमने अपनी वापसी यात्रा आरंभ की । बीच-बीच में कुछ बूँदाबाँदी भी होती रही ,लेकिन इस द्वीप की हरियाली के आगे ये सब बाधायें गौण थी। सभी लोग अपने-अपने तरीके से इस नैसर्गिक सुन्दरता का आन्नद ले रहे थे । इसकी तारीफ में सभी लोग अपने - अपने तरीके से कसीदे गढ रहे थे । कैमरे दृश्यों को कैद करने में मगन थे । इस नैसर्गिक  सुन्दरता ने हमें एकदम से तरोताजा कर दिया था । मलय समीर के मन्द - मन्द झोंके  मन को भले लग रहे थे । कुछ घंटों की पैदल यात्रा के बाद हम वापस वहीं पहंच गए जहां से चले थे यानि कि लैंडिग पॉइंट के  पास । दीपघर परिचर ने हमें अपने घर चलने का आग्रह किया । मन काफी प्रसन्न था, हमारी खुद की इच्छा भी सुस्ताने की हो रही थी ।अतः हम मना न कर सके । उसके घर से पहले एक झोपडी थी जिसमें एक बुत रखा हुआ थाजो सिर्फ हैट और कच्छा पहने हुए पालथी मारे बैठा था । परिचर से पुछने पर पता चला कि यह उनके पूर्वजों की यादगार है।
           
           हैट और कच्छा पहने हुए पालथी मारे बैठा हुआ बुत

खैर जो भी हो परिचर ने सभी का स्वागत कच्चे नारियल के ठंडे मीठे जल से किया । फिर अपने बाग बगीचे और जानवर दिखाए । जानवरों में यहां पर बकरी, सुअर तथा मुर्गियां पाली जाती हैं । सुअर को खाने के लिए नारियल की गरी दी जाती है। यहां के लोगों का जीवन बिल्कुल सीधा सादा है ।भोजन में चावल, केवड़ी (एक प्रकार का स्थानीय फल) मछली, सुअर का मांस इत्यादि होता है ।यहां के लोग अपनी जरूरत का सामान प्राप्त करने  के लिए पास के टेरेसा द्वीप पर निर्भर करते हैं जो फेरी सेवा द्वारा राजधानी     पोर्टब्लेयर से जुड़ा है । इस द्वीप पर सभी सुविधाएं जैसे अस्पताल, स्कूल, पोस्ट आफिस, फोन  इत्यादि की सुविधा है । दीप परिचर को तनख्वाह बैंक ड्राफ्ट द्वारा भेजी जाती है जिसे पाने के लिए उसे टेरेसा द्वीप के पोस्ट आफिस जाना पड़ता है तत्पश्चात वहां से ड्राफ्ट लेकर उसे कैश  कराने के लिए एक और द्वीप  नान कौरी जाना होता है । नान कौरी द्वीप के बैंक से पैसे  और अपनी जरूरत का सामान लेकर  वह अपने बम्पूका द्वीप वापस  आ जाता ।                         
                
                 बम्पूका तट से एन्कर प्वाइंट की ओर  
           
             
                 एन्कर प्वाइंट पर होडी से नौका पर चढते हुए 
          
इस द्वीप पर हमारे विभागीय परिचर का ही परिवार रहता है जो कि काफी बडा है । जिससे तकरीबन 40 के लगभग सदस्य हैं ।पानी के लिए यहां पर एक छोटा सा झरना है । जिसमें साल भर पानी रहता है । स्कूल और बिजली की सुविधा नहीं है । सन् 2004 की      सुनामी के पहले यहां पर सौर उर्जा द्वारा बिजली की सुविधा द्वीप प्रशासन द्वारा की गयी थी। एक प्राइमरी स्कूल भी खोला गया था। परन्तु सुनामी लहरों ने सब बर्बाद कर दिया । पढ़ने के लिए अब बच्चों को पास के टेरेसा द्वीप पर होस्टेल में रहकर पढाई करनी पडती है । दवाओं के लिए ये लोग स्थानीय जड़ी बूटीयों पर निर्भर रहते हैं तथा गहन चिकित्सा के लिए इन्हें टेरेसा द्वीप पर जाना पडता है । फोन की सुविधा नहीं है । फिलहाल यहां पर मोबाइल नेटवर्क काम नहीं करता है।
दीपघर परिचर इन्काइनाइलू की मेजबानी निष्कपट और निश्चल थी। कहा भी गया है सच्चा प्यार और मोहब्बत ग्रामों और देहातों में ही देखने को मिलता है  । शहरी दिखावे और आडंबर से दूर प्रकृति कि छांव में पले बढ़ें लोग प्रकृति की तरह ही शांत और मोहक होते है। वह बडे ही तन्मयता से अपने पालतु पशुओं और लगाए हुए पौधों ,जंगल की दिनचर्या आदि के बारे में अपनी टूटी फूटी हिन्दी में बता रहा था ,और हम आदिवासी जीवन की सही झलक पाने के लिए उससे रह-रह कर का प्रश्न पूछते जाते । हमारी जिज्ञासाओं का कोई अंत न था । अतः समय की गति को देखते हुए हमने इन्काइनाइलू से विदा ली ।
परन्तु ऐकर प्वाइंट तक पहुंचाना तो उसे ही था । उसने फिर अपनी होडी जिसे काम समाप्त होने के बाद किनारे से ऊपर रख दिया गया था , को पानी में उतारा और दो दो के दल में हमें ऐकर प्वाइंट पर स्थित हमारी नौका पर पहुंचा दिया  । जहां से हमलोग वापस जहाज पर आ गए । जहाज अपने अगले पडाव की ओर बढ चला किन्तु हमारी स्मृति अभी भी बम्पूका द्वीप की प्राकृतिक सुंदरता में खोई हुइ थी ।                                                 

Friday, 7 June 2013

Trek To Saddle Peak



               Saddle peak is a popular trekking destination of Andaman & Nicobar Islands. The complete area surrounding the Saddle Peak was also declared as a National Park in 1979.I t is  spreaded  over an area of 33 Sq. Km and completely covered by the thick tropical rain forest. The main vegetation is, generally conducive to humid, warm and wet tropical climates. The main animal spices in this park are Andaman wild pig, water monitor lizard and other general species. The important birds, found here are, Andaman hill Mynah and Imperial Pigeon. The best time to visit this place is November to March. It is situated in North Andaman, nearby a popular tourist destination place called Diglipur. One has to either travel by Bus or Ferry boat service to reach Diglipur which may take about 8 hours approximately .This distance is about 300 KM, towards north from the capital town, Port Blair, of these famous & great emerald islands.
Due to official works I had visited Diglipur several times, since 1994, and the idea of trekking to saddle peak also came in my mind several times. But as you know very well that nothing happens without the great blessings of the Almighty.(Lakh tadbeer kare banda to kya hota hai, vahi hota hai jo manjure khuda hota hai).
So, one great morning of 13th May 2013, when we (with one of my colleague Shri S.K Goenka) visited Diglipur enroute to East Island, the weather suddenly changed. Weather warning was issued for the public in the News papers. The fisherman’s were adviced not to venture into the sea. As soon as we reached Diglipur, we met our Dinghy-man sh. Jagannath and discussed with him about our next day's programme. He told us that since weather is cyclonic and sea is very rough, it is not possible to proceed further to East Island tomorrow or in next 2/3 days.
There was no other option than to sit at Diglipur and get bored by seeing or dreaming about weather. I started thinking, how to pass time at Diglipur, as it is a small town, and I have visited this place several times & nothing new is left here to visit from the tourist point of view. Everybody is busy in their routine jobs or work, and we don't have any work. Suddenly, an idea of trekking to saddle peak came in my mind and I shared it with my colleague and the dinghy-man .They, both welcomed my idea, and we planed accordingly, had food and came to our Hotel for planning the next day  schedule.
Next day i.e. on 14th May, we got up early in the morning & get ready for a lovely trek to peak .We took packed lunch and water and took a bus for a place called, Lamia Bay .We took necessary Forest permission and by that time Sh. Jagannath,  also reached there by motorbike along with one of his friend
A view of saddle peak.
Panoramic view from saddle Peak.
Namely Sh. Sukumar Das, a young chap of about 20 years age. Sh.Sukumar had already visited the saddle peak twice in recent years & familiar with the local trek journey to Saddle peak.
                We started our journey at 0700 hours sharply from Forest camp, Lamia Bay. On the way Sh.Sukumar told that we have to walk for about an hour to reach base of the saddle peak which is roughly 6 Km from Lamia bay and the path is through the Paddy fields, forest and near the sea coast. The distance is   5 Km from the base and the height of the peak is 732 mt. It took about an hour and fifteen minutes to reach the base of the peak .On the way Board/stone marking was there in several places indicating the path to Mountain peak. Here, we came across a small stream & the water of the stream was fresh, cool and potable.   We rested here for about ten minutes and started further trekking from the base. We saw a signboard of Forest Department indicating, Saddle Peak Distance 5 Km, Height 732 mt on the way. There were Steps made on the way, some of by Forest Department and some by the routine trips of officials by nature. Streep Trekking angle was around 40⁰ to 45⁰ & the path was full of dense forest with absolutely no wind movement. After a walk of about 20 minutes, I felt myself exhausted and started breathing heavily. I wanted to continue my trekking. I had a glimpse on all my trekking friends, they looked better than me. Then, I asked Sukumar, being a experienced person in the team, what to do under so tired condition. He replied "there is no need to worry, I have seen several persons getting exhausted, and later on they reached up to the top of the hill. I got here some energy, after taking some rest in between we trekked for two hours and finally reached a place from where we can see plenty of scenic beauty of green mountains. The place was little bit open and we could feel the wind blowing. Now I felt totally relaxed and normal. After reaching this highest point we felt fresh, happy and confident .We captured the scenic beauty in our mobile camera, as we have not brought any professional camera with us.
                We thought our trekking is over at this point, but when we asked Sh. Sukumar, he pointed to one side and said we have to trek further up to that hillock. Sh. Santosh anxiously said “It is too much height and it will take another two hours". Sh. Sukumar said" don't worry it will not take that much time, as we have to cover the distance with lesser inclination. We continued our trekking in the forest; the cool breeze was blowing and now no tiredness we feel at all. Here everything was nice, cool and impressive. At around   1145 hours, we reached top of the saddle peak. It was full of scenic beauty; we could see so many islands and peaks from this point. We also saw the cloud kissing our faces. It was mind blowing to see & feel the cotton like cloud moving here and there and sometimes touching us. The nearby villager's have made a small temple at this place and placed a "Shivling and Trishul” here for prayer. We also bowed our head here for a while and prayed for the peace & prosperity of our Great India. There was an open wooden elevated   structure, we sat there and took some snaps, had a phone call to our near & dears.  We also had our lunch here. We were full of joy and felt proud of ourselves for climbing this peak. We rested here for some time in the top of (Saddle peak) the Mother Nature and started our return journey back to the base of Mountain.
The return journey was also interesting and thrilling, as the rain started pouring and the whole path became slippery. We all were managing ourselves and trekking safely on this path with the help of long strong stick. Suddenly Inside the forest, darkness also increased due to clouds and rain. We were totally wet from top to bottom but still we were enjoying our return journey. It took us around three hours to reach the base point. Again, it took an hour to reach “Lamia bay “from base of the saddle peak. It was around 1630 hrs when we reached the Lamia Bay. We were totally tired, after a long trek our legs were paining. We had a cup of Tea at Lamia Bay and felt a little fresh & better. At around 1700 Hrs, we took a bus for Diglipur and finally reached our Hotel. We both were totally tired but we enjoyed a lot and this trekking will remain in our long memories for the whole life. A person visiting to this island must visit Saddle Peak as the scenic beauty from this peak is heavily fabulous and mind blowing.
On the elevated wooden platform 
     

कुछ पल स्वजनों के साथ

   
कुछ पल स्वजनों के साथ.3

17 जनवरी 2010 की सुबह, पौ फट रही थी । पूरब का आसमान लाल हो चुका था । रोजाना की तरह ही सागर की लहरें मेरे चरण पखार रही थीं । मलय समीर के मन्द – मन्द झोंकें मन को अच्छे लग रहे थे । तभी मैंने काफी नजदीक से एक जहाज को गुजरते हुए देखा, जो कुछ कुछ अपना सा,जाना पहचाना सा लग रहा था ।जहाज पहले पश्चिम को फिर थोडा उत्तर दिशा को बढा और फिर ठहर  गया । मुझे लगभग यकीन सा होने लगा था कि यह अपना एम वी सागरदीप ही है । परन्तु शंका समाधान के लिए मैंने अपनी दृष्टि उसी ओर जमाए रखी ।
वैसे भी मेरी दिनचर्या अक्सर इसी तरह जहाजों को निहारते हुए ही बीतती है  । कुछ मेरे रेकॅान के सन्देश को प्राप्त कर आगे बढते हैं तो कुछ मेरी तेज रोशनी को देख कर आगे बढते हैं पर बहुत कम ही मेरे पास आ कर ठहरते हैं ।
मैंने देखा जहाज ने एक नौका को पास के समुद्र में उतारा, कुछ लोग नौका पर उतरे और तट की ओर बढ चले । मैंने नौका को कुछ दूर पानी में चलते देखा, फिर भौगोलिक परिस्थिति के कारण नौका दिखनी बंद हो गई ।फिर तकरीबन आधे - पौन घंटे बाद 10 - 11 लोग मेरी ओर आते दिखाई दिए । मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया क्योंकि मैं समझ गया कि ये मेरे ही विभाग के लोग हैं और मुझसे ही मिलने आ रहें हैं ।
अभी हाल में ही मुझसे कुछ डेढ-दो सौ मीटर की दूरी पर किनारे पर ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गांधी जी की एक बडी सी कांस्य प्रतिमा लगी है जो ठीक मेरे सामने ही है। इस प्रतिमा के लगाए जाने का काम काफी पहले से चल रहा था, किन्तु 26 दिसम्बर 2004 की सुनामी के बाद यह काम काफी धीमा हो गया था । इसके कई कारण थे । एक तो पहले बनवाई गई प्रतिमा लगने से पहले ही सुनामी लहरों की भेंट चढ गई । दुसरी इसके बाद नई प्रतिमा जब तक आई यहॉं की भौगोलिक परिस्थितियॉं बदल चुकी थी । अब जब से यह प्रतिमा लगी है मेरा एकांत और सूनापन लगभग खत्म होता सा प्रतीत होने लगा । मेरी अब इस प्रतिमा से गहरी छनने लगी है और हम एक दूसरे का ख्याल रखने लगे है ।   
    भारत के  दक्षिणतम छोर पर वार्तालाप करते दो मित्र

प्रशासन द्वारा  यहॉं पास में ही एक नया हेलीपैड भी बनवा दिया गया है, क्योंकि पहले वाला हेलीपैड भी सुनामी की भेंट चढ चुका था । जब से यह हेलीपैड बना है अक्सर कोई न कोई विशिष्ट अतिथि आते रहते है। जिससे हमें भी दीन दुनिया की खबर लग जाती है । पुलिस रेडियों की एक टीम, मेडिकल , फोरेस्ट के कुछ लोग तथा कुछ मजदूर, भी यहॉं डेरा डाले हुए है, परन्तु ये लोग तो आज यहां कल कहीं और  जाने वाले है । लेकिन यह  प्रतिमा कही जाने वाली नहीं है ।  फर्क इतना ही है कि वह तट पर है और मैं उससे करीब डेढ दो सौ मीटर दूर पानी में ।  उसे देखने अक्सर कोई न कोई आता रहता है और साथ में मुझे भी देख कर खुद को भाग्यशाली महसूस करता है । परन्तु मुझे देखने वाला बिरला ही कोई आता है ।लेकिन आज मेरी खुशी का कोई ओर छोर नहीं हैं क्योंकि यह दस बारह लोगों का दल जो मेंरी ओर बढ रहा है मेरे अपने लोग है जो केवल मुझे देखने आ रहें है । इंदिरा जी की प्रतिमा को देखना इनका मुख्य विषय नहीं है , आज यहां भारत के दक्षिणतम बिन्दु पर इंदिरा जी की प्रतिमा की नहीं मेरी बात होगीयह सोच कर मैं मन ही मन प्रफुल्लित हो रहा था । आज मुझे बड़ी तसल्ली हो रही थी कि चलो देर से ही सही पर मेरे विभाग ने मेरी सुध ली है ।
मैं अपलक इस दल को निहार रहा था जो बडी ही तेजी और आतुरता से मेरी ओर बढ रहा था । पास आने पर उनकी बातचीत से पता चला की दल की अगुवाई स्वयं निदेशक महोदय कर रहें हैं और साथ में सहायक कार्यकारी अभियंता तथा कुछ कर्मचारी भी हैं ।मैंने मन ही मन सब का अभिवादन किया । 
निदेशक जी का यह पहला दौरा था वे काफी रोमांचित लग रहे थे । वे बार बार मेंरे और तट के बीच की उस तकरीबन 50 मीटर चौडी गहराई को देख रहे  थे जिसमें यहां की टुटी हुई बिल्डिंगों का मलबा पडा था । समुद्र की जोरदार थपेडें, और मलबा हर किसी को मेरी ओर बढने से रोक रहें थे । निदेशक जी ने मुझ तक पहॅंचने की हर संभावनाओ पर काफी देर तक चिंतन मनन किया । फिर सब लोग मेरे मित्र इंदिरा जी की प्रतिमा के पास जा कर बैठ गए और मेरी ओर देखते हुए आपस में बातें करने लगे ।
                 
उनके मन की तो वो जाने पर मैं प्रत्यक्ष देख रहा था कि जितनी खुशी इस दल को यहां देख कर आज मुझे हो रही थी उससे कहीं ज्यादा खुशी यहां पहुंचने की ,उनके चेहरे पर मुझे झलक रहीं थी । सब लोग कभी मेंरे साथ तो कभी मेंरे मित्र के साथ स्थान बदल-बदल कर तस्वीरें खिंचवा रहें थे । उनकी यह हरकतें देखकर मैं भी मन-ही-मन मुस्कुरा दिया ।
यहां पर डेरा डालें हुए विभिन्न विभागों के लोगों से भी निदेशक महोदय मिले और उनका हाल-चाल पूछा । फिर टूटें हुए स्टाफ र्क्वाटर में  जाकर  सब के सब बैठ गए । यहां सबने सुनामी में अपने बिछड़े हुए साथियों की याद में दो मिनट का मौन धारण कर अपनी श्रद्वांजली अर्पित की ।
मैं सोच रहा था कि एक आज की सुबह है जिसने मेरे मन को अहलादित कर दिया है ।  एक सुबह 26 दिसम्बर 2004 वाली भी थी जिसकी शुरूआत तो आज की सुबह जैसी ही हुई थी परन्तु उस दिन जो तांडव मचा था उसे याद कर आज भी मन कांप उठता हैं । वहीं टूटें हुए स्टाफ र्क्वाटर में ही थोड़ी देर आराम करने के बाद इस दल ने मुझसे विदा ली और अपने अगले गंतव्य की ओर बढ़ चले ।
भारत के इस दक्षिणतम बिन्दू पर खडा मैं इंदिरा पांइट दीप घर सागर की लहरों के थपेडे खाता अश्रुपूरित नयनों से उन्हें अपने अगले गंतव्य की ओर बढ़ते हुए देखता रहा ।



                        

सुनामी और मैं "दीपस्तंभ इन्दिरा पॉइंट

सुनामी और मैं "दीपस्तंभ इन्दिरा पॉइंट -2

           26 दिसम्बर 2004 की सुबह ,पौ फट रही थी । हमेशा की तरह आज भी पूरब का आसमान नारंगी हो चला था । जंगली कबूतर और मेगापोड पक्षी चहचहा रहे थे । नाइट ड्यूटी पूरी कर एक सहायक दीपपाल जा चुका था, और अगला अपनी ड्यूटी कर रहा था । सब कुछ और दिनों की भांति ही चल रहा था । दीपघर परिचर मेरे प्रवेशद्वार को बंद कर वहीं नीचे बैठा सुस्ता रहा था । इन दिनों मेरी रंगाई पुताई का कार्य चल रहा था । इसके लिए कुछ मजदूर पोर्टब्लेयर से यहां आकर डेरा डाले हुए थे और वे भी अपना काम शुरू कर चुके थे । अपनी रंगाई पुताई के इस कार्य से मैं मन ही मन खुश हो रहा था, कि तभी अचानक धरती डोलने लगी । मैं भी थर थर कांप रहा था । मैं ने तो पहले भी कई बार धरती को डोलते देखा था, पर इस बार धरती का डोलना लगभग असहनीय लग रहा था । इस बार कंपन कुछ ज्यादा ही तेज़ लग रहा था । मैंने अपनी सेवा में लगे कर्मचारियों को भी घबराहट में दौड़ कर अपनी ओर आते देखा ।
          अरे- रे- रे- यह क्या समुद्र का जल स्तर अचानक तेजी से घटने लगा, बहुत दूर तक समुद्र सूख चुका था और समुद्री जीवों को मैं तड़पता देख रहा था । अगले ही पल मै यह  क्या देखता हूँ कि समुद्र का जल अब करीब-करीब  अस्सी- नब्बे फुट ऊँची दीवार में तबदील हो चुका था, और काले नाग कि तरह फन फैलाए मेरी ओर ( यानि तट कि ओर ) दौड़ पड़ा था । ऐसा विचित्र दृश्य मैंने अपने 35-40 साल के जीवन काल में न कभी देखा था न ही सुना । कुछ ही पलों में दुर्दांत सागर की अतुल जलराशि ने मुझे अपने आगोश में ले लिया । चारों ओर जल ही जल था, बेहद खारे, उफनते और असीम जल से मैं सराबोर था । मेरी आखों से आँसू ढुलक पड़े । अपनी सेवा में लगे कर्मचारियों और उनके परिवार वालों का हश्र मेरी कल्पना से परे था । मैं खुद 100 फुट का लौह स्तंभ अपने आपको किसी तरह धरती में जमाए खड़ा था, और पानी मेरी गरदन तक आ पहुँचा था । मुझे कुछ वृक्षों और पास की पहाड़ी पर के वृक्षों की शाखाएँ दिख रही थी । मै अब डूबा की तब डूबा की स्थिति में पड़ा अपनी सेवा में लगे कर्मचारियों और अपनी सलामती के लिए ऊपर वाले को मन ही मन याद कर रहा था । मेरे आस पास के नारियल, केजूरीना तथा अन्य ऊंचे पेड़ों को जो मेरे सुख दुख में साथी थे, जिनके साथ मैं बड़ा हुआ, को मैं जड़ समेत उखड़कर पानी मे बहते देख रहा था । करीब आधे पौने घंटे तक इसी स्थिति में पड़ा मैं विधि का विध्वंस देख रहा था । कुछ आधे पौने घंटे बाद जल का स्तर घटने लगा, घटते घटते करीब करीब मेरी आधी ऊंचाई तक आ गया, और फिर अचानक तेज़ी से जलस्तर बढ़ा और बढ़ते बढ़ते फिर धड़ तक आ पहुँचा । मैंने सोचा अब तो गया, पर धड़ तक ही आकर थम गया । यही क्रम दोपहरी तक चलता रहा । कुछ घंटों बाद जल स्तर काफी घट गया, सागर की लहरें शांत होने लगी, संध्या हो चली थी, परंतु मैं अजीब सी नीम बेहोशी के आलम में था । बीच बीच मैं धरती कई बार डोलती रही ।
इन्दिरा पॉइंट दीप घर (वर्तमान स्तिथी)
          अगले दिन जब सुबह हुई तो मैंने देखा की समुद्र जो पहले मुझसे 50 मीटर दूर हुआ करता था अब करीब करीब 50 मीटर मुझसे आगे बढ़ चुका है । मेरा नीचे का हिस्सा जहां लोग अपनी थकान मिटाने के लिए बैठते थे वहां समुद्र का पानी था । इस भूकंप और भयानक समुद्री लहर ने जिसे बाद में लोग सुनामी कहने लगे थे, मेरी नींव को हिलाकर रख दिया  
          मेरी नींव के पास करीब डेढ़ से दो मीटर गहराई तक पानी था जिसमें मेरे करीब ही बने पावर हाउस, इन्सपैक्शन क्वार्टर की लोहे की छड़े और उनका मलबा पड़ा हुआ था । मुझसे 60 मीटर दूर खड़ा मेरा पुराना साथी एरियल मास्ट जैसे कट कर कहीं बह गया था और मुझसे 200 मीटर दूरी पर बना स्टाफ क्वार्टर भी बुरी तरह छतिग्रस्त हो गया था। आस पास दूर- दूर तक सिर्फ सफ़ेद रेत ही नज़र आ रही थी। मेरी सेवा में लगे कर्मचारियों और मजदूरों का आस पास कोई नामों निशान नहीं था।
          कभी अपने आस पास की हरियाली और सुंदरता को देख कर मैं गर्व महसूस करता था, परंतु आज अपनी बदहाली और दुर्दशा पर खून के आँसू रो रहा हूँ । 27 दिसम्बर की दोपहर बीत रही थी, मैं सोच रहा था शायद दुनिया इस जोरदार भूकंप और सुनामी लहरों की चपेट में आकर समाप्त हो चुकी है, परंतु तभी मैंने एक डोनियार एयरक्राफ्ट को अपने आस पास चक्कर लगाते देखा तो मुझे भरोसा हो गया की अभी दुनिया समाप्त नहीं हुई और अभी बहुत कुछ बाकी है । अगले कुछ दिनों में मैंने नौसेना के चेतक हेलिकॉपटर को भी अपने पास उतरते देखा उनमें  कुछ नौसैनिक और मेरे विभाग के कनिष्ट अभियंता थे, जो कैम्पबेल बे से आए थे, और इस भयानक हादसे के बाद मेरे आस पास का जायजा ले रहे थे । वे लोग मेरी सेवा में लगे कर्मचारियों में से किसी के  भी जीवित या मृत पाए जाने की विभिन्न संभावनाओं पर विचार कर रहे थे, और उन्हें ही खोज रहे थे । परंतु मैंने उन सबको असफल वापस जाते देखा। उनकी बात चीत से मुझे मालूम पड़ा की इस हादसे का केंद्र मुझसे कुछ ही दूरी पर स्थित इण्डोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में समुद्र के 15 की॰ मी॰ नीचे आया भूकंप था । इसकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर 8.9 आँकी गई थी और जिसकी  वजह से ही सुनामी लहरे पैदा हुई थी। सुनामी  मारक लहरों ने कैंप बेलबे ,पिलोमीलों ,नान कोरी ,कचाल,कारनिकोबार तथा लिटल अंडमान  द्वीपों मे भी भयानक तबाही मचाई थी ।   पोर्ट ब्लेयर जो कि अण्डमान निकोबार द्वीपों कि राजधानी है पर भी उसका काफी असर पड़ा था, पर अपेक्षाकृत कम । जिसकी वजह से मैंने सुना कि राहत और बचाव का कार्य हो पा रहा था । लोगो को खाने के पैकेट, पानी कि बोतलें और दवाईयाँ हैलीकोप्टर के द्वारा गिराई जा रही थी । तीनों सेनाओं और कोस्टगार्ड को मिला कर बना अण्डमान निकोबार  कमांड,  अण्डमान निकोबार प्रशासन की बचाव और राहत कार्यो में मदद कर रहा था । इस तबाही का आलम यहाँ से बहुत दूर नागापट्टनम चेन्नई और कन्याकुमारी के तटीय इलाकों में भी जबर्दस्त  था । मैं तो आज भी उन पलों को सोचकर सिहर उठता हूँ
             
                        19 जनवरी 2005 को तटरक्षक के एक चेतक हैलिकोप्टर ने मेरे आस पास चक्कर लगाया और कुछ लोगों को नीचे उतार गया । मैंने ध्यान से देखा तो वे मेरे विभाग के ही लोग थे । मेरे विभाग का यह दल जिसमें दो निदेशक, एक उप निदेशक और पाँच टेकनीशियन तथा एक सहायक थे, जो मेरे आस पास का जायजा ले रहे थे । अपने साथियों के बिछड़ जाने से दुःखी था, पर इन लोगों को देखकर मैं विचित्र सी खुशी महसूस कर रहा था, कि देखो मेरे विभाग के लोग किस तरह से इतनी  कठिन परिस्थिति में भी मेरी खोज खबर लेने पहुँच चुके हैं । इन लोगों ने सबसे पहले यहाँ पर कार्यरत अपने साथियों कि आस पास बहुत खोज बीन कि घंटो ढूंढते रहे पर नतीजा शून्य ही रहा । सिर्फ उनके निवास स्थान के पास उन्हें कुछ कपड़े इत्यादि मिले । इन लोगों ने मलबों के नीचे भी झांक कर और उलट पलट कर देखा पर इनका प्रयास विफल ही रहा  । तब इन लोगों ने वहीं स्टाफ क्वार्टर के मलबों के पास दो मिनट का मौन धारण कर अपने संभावित बिछड़े साथियों को श्रद्धांजलि अर्पित की । फिर इन लोगों ने तटरक्षक के गोताख़ोरों की मदद से मुझ तक पहुँचने का कठिन प्रयास किया, पर विफल रहे क्योंकि मेरे पास में ही पानी की गहराई करीब दो मीटर हो चुकी थी तथा मेरी नींव के चारों ओर रेत के बदले पावरहाउस और इंस्पेक्शन क्वार्टर की टूटी छत और उसकी लोहे की छड़ें पड़ी थी । समुद्र की लहरों के बीच वहां पहुंचना अत्यंत जोखिम भरा था । ये लोग किसी तरह से मेरी तेज़ रोशनी और  रेकॉन को पुनः प्रचालित करने का निश्चय लेकर आए थे । 19 तारीख को तो ये लोग थक हार कर वापस तटरक्षक जहाज सी॰ जी॰ एस॰ विवेक पर चले गए जो पास मे  ही  इनका इंतज़ार कर रहा था, पर अगले ही दिन नई सोच और उमंग के साथ ये फिर आ धमके । इस बार भी आकर इन्होने मुझ तक पहुँचने का काफी प्रयास किया पर सफलता अभी दूर थी ।
इन्दिरा पॉइंट दीप घर (वर्तमान स्तिथी)
          यूं तो इस दल में जितने भी लोग विभाग के आए थे वे सभी इस मिशन के दौरान असाधारण परिस्थितियों    मे काम करने के आदी हो चुके थे, भले ही  उन्हें इस तरह से काम करने का प्रशिक्षण न मिला हो । इन लोगों को मैं सैनिकों से भी ऊंचा दर्जा दूंगा, क्योंकि सैनिक ऐसी जंवामर्दी दिखाने  के लिए ट्रेंड होते हैं,और उनसे इस प्रकार के कार्यों की अपेक्षा की जाती है, और वैसी ही सुविधा भी उन्हे दी जाती है। वे हर हाल में मौत से दो दो हाथ करने के लिए तैयार किए जाते है । इस दौरे में आए सभी लोग एक मिशन के तौर पर निकले थे । इनका मकसद था, हर हाल में जितने भी मेरे साथी दीपघर काम नहीं कर रहे है उन्हें ठीक करना । चाहे इसके लिए इन्हें कमर पर रस्सी बाँध कर चेतक से उतरना हो या नाव द्वारा किनारे पहुचकर जंगली कांटों भरे पथ पर गुजरना पड़े । इनमें से कुछ लोगों को काबरा द्वीप पर हैलीकाप्टर से कमर में रस्सी बाँध कर उतरना पड़ा । काबरा द्वीप मे तो तट ही नहीं दिख रहा था , पूरा तट ही पानी से ढंका था तब भी ये लोग  किसी तरह से कमर तक पानी मे ही  हैलीकाप्टर से उतारे गए थे। आप कल्पना कीजिए की सुनामी के बाद का जब हालात ऐसे थे की समुद्र का नाम लेने से लोग डरते हों उस समय कमर तक पानी में सूनसान द्वीप पर चेतक से कमर में रस्सी बाँधकर उतरना एक अप्रशिक्षित व्यक्ति के लिए आसान नहीं है ।

          कुछ ऐसा ही निर्णय मुझे पुनः प्रचलित करने आए कर्मचारियों और अधिकारियों का भी था। मैं अब जो आगे जो कहने जा रहा हूँ उसकी सिर्फ कल्पना मात्र से आप रोमांचित हो जाएंगे ।  सवेरे जब विभाग के  लोग तटरक्षक के लोगों के साथ मेरे पास आए तो उनका विचार था--सबसे पहले दो तटरक्षक के गोता खोरों को चेतक से 30 मीटर की ऊंचाई पर मेरी रेलिंग पर उतारा जाए और वे भीतर आकर खोज बीन करें । उन्हें संदेह था ,कि हो सकता है यहाँ कार्यरत कर्मचारियों ने  भी बढ़ते पानी को देखकर मेरे भीतर घुसकर अपनी जान बचाने का प्रयास किया हो जैसा की कीटिंग प्वाइंट दीपघर में हुआ था । फिर उसके बाद मेरे दरवाजे से किनारे तक रस्सी का पुल बनाया जाए , ताकि विभाग के  कर्मचारी अंदर आकर नए प्रकाशीय उपकरण और रेकॉन की स्थापना कर मेरे वहाँ खड़े होने को सार्थक कर सके, और ऐसा ही किया गया । पहले दो तटरक्षक के गोताखोर चेतक से रेलिंग पर सावधानी से उतरे और उतर कर ऊपर के शीशों को तोड़ कर भीतर आए । फिर नीचे के दरवाजे से बाहर आकर बताया की अंदर कोई भी नहीं है । इसके बाद किनारे से गन फायर कर रस्सियों का आदान प्रदान कर पुल बनाने का असफल प्रयास किया गया । यह सब करते करते दोपहर हो गई । तब विभाग के दो जाँबाज कर्मचारियों ने अपने अधिकारियों से कहा कि सर जैसे गोताखोर लोग अंदर गए हैं वैसे ही हमको भी अंदर भिजवा दीजिये । दोनों अधिकारियों को यह कठिन निर्णय लेने में थोड़ा वक्त लगा क्योंकि तटरक्षक और हमारे लोगों में काफी असमानताएं होती है । तटरक्षक के लोग ऐसे कामों में माहिर होते है फिर भी ऐसा जोखिम वे कभी कभी ही  उठाते है और हमारे लोग कभी कभार ऐसा कदम असमंजस या आगे कुंआ पीछे खाई की स्थिति में उठाते है, जैसा की काबरा द्वीप में उठाया था । ऐसे कामों में वे एकदम अप्रशिक्षित होते है ।
          इस समय ऐसी ही नाज़ुक स्थिति थी । कर्मचारियों का विचार मानने का अर्थ था उन्हें सीधे सीधे मौत के मुँह में भेजना, क्योंकि इतनी ऊंचाई पर चेतक को भी सटीक रोके रखना और उस ऊंचाई पर हमारे लोगों में भय न होना, तथा गहरी सावधानी ही सफलता की सीढ़ी थी । ऊपर हवा का बहाव भी अधिक महसूस होता है । एक उहापोह की स्थिति थी । हमारे लोगों का आगे बढ़ना जोखिम भरा था और पीछे हटना कायरता और मिशन को अधूरा छोड़ना । अगर काम हो जाता है तो शाबाशी ज्यादा नहीं मिलनी थी, लेकिन अगर कुछ अनहोनी हो जाती तो झाड़ भरपूर मिलनी थी । आखिर कठोर निर्णय लिया गया और दोनों कर्मचारी तटरक्षक के गोताख़ोरों की भांति ही सावधानी से रेलिंग पर उतरे । प्रकाशीय उपकरण, नया रेकॉन, बैटरी, सोलर पैनल्स, टूल्स इत्यादि को भी इसी तरह चेतक से मेरे अंदर भेजा गया । करीब ढाई तीन घंटो के अथक प्रयास से दोनों कर्मचारियों ने सब कुछ यथास्थान पर ठीक ढंग से स्थापित कर मेरे वहाँ इन्दिरा प्वाइंट में होने को सार्थक कर दिया । जिसके लिए मैं उन दोनों कर्मचारियों का एहसानमंद हूँ । उनकी जांबाजी के आगे मैं नतमस्तक हूँ ,मिशन पूरा होने की खुशी में मैं भी इनके साथ खुशी में झूम उठा । इन दोनों ने भी अंत में मेरे भीतर का मुआयना कर अपने बिछड़े साथियों को खोजने का असफल प्रयास किया और फिर जैसे आए थे वैसे ही मेरी रेलिंग से चेतक द्वारा बाहर निकल आए । जब ये लोग पूरा मिशन खत्म कर वापस तटरक्षक जहाज सी॰ जी॰ एस॰ विवेक पर पहुंचे तो उनके बाकी साथियों ने हर्षध्वनी कर उनका जोरदार  स्वागत किया ।
          आज भी मैं बार बार सोचता हूँ की ऐसी कौन सी अदृश्य शक्ति है जो मेरे विभाग के कर्मचारियों को जान हथेली पर लेकर आगे बढ़ने और मिशन को हमेशा पूरा करने की प्रेरणा देती है । मेरे विभाग के जांबाज कर्मचारी और अधिकारीगण अपने संभावित बिछड़े साथियों को श्रद्धांजलि अर्पित कर चले गए परंतु मेरा मन अब भी यह नहीं मानता है । आज भी मैं उनकी प्रतीक्षा वैसे ही कर रहा हूँ जैसे पहले करता था जब वे कैम्पबेल बे या और कहीं जाया करते थे ।

................दीपस्तंभ "इन्दिरा प्वाइंट"